जब मनुष्य झरने की भांति सरल होता है,

एक छोटी—सी घटना कहूं, उससे मेरी बात समझ में आये कि हमारे हाथ में करीब—करीब कुछ भी नहीं है। लेकिन फिर भी हमको यह वहम पैदा होता है कि मैं कुछ हूं और उससे हम कठोर हो जाते हैं।
बड़े से बडा धनी आदमी, जिसके पास कितनी ही संपत्ति हो,जब मृत्यु उसके द्वार खड़ी हो जाती है, तो उसे पता चलता है कि मेरी कोई ताकत नहीं। बड़े  से बडा सम्राट, जिसके पास बहुत शक्ति हो, जिसने दुनिया में न मालूम कितने लोगों की हत्या की हो,जब मौत उसके द्वार खड़ी हो जाती है, तो पाता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। अब तक किसी मनुष्य को भी इस वहम को कायम रखने का कोई कारण नहीं मिला कि उसकी कोई शक्ति है, कि वह कुछ है। एक घटना मैं तुम्हें कहूं।
एक बहुत बड़े राजमहल के निकट कुछ थोड़े से बच्चे खेल रहे थे। एक बच्चे ने पत्थर की ढेरी में से एक पत्थर उठाया और राजमहल की खिड़की की तरफ फेंका। वह पत्थर अपने पत्थर की ढेरी से ऊपर उठा; बच्चे ने फेंका तो पत्थर ऊपर उठा। उस पत्थर ने, नीचे जो पत्थर पड़े थे उनसे कहा कि 'मित्रो, मैं आकाश की तरफ जा रहा हूं!' बात ठीक ही थी। गलत कुछ भी न था। जा ही रहा था। नीचे के पड़े पत्थर देख रहे थे। उनके वश के बाहर था कि वे भी जाएं। इसलिए इस पत्थर की विशिष्टता को स्वीकार करने में—अस्वीकार करने का कोई कारण भी न था, स्वीकार करना ही पड़ा।
वह पत्थर ऊपर उठता गया। वह जाकर काच की खिड़की से टकराया महल के। काच टूटकर चकनाचूर हो गया। उस पत्थर ने जोर से कहा कि ' मैंने कितनी बार कहा कि मेरे रास्ते में कोई न आये, नहीं तो टूटकर चकनाचूर हो जायेगा!' यह भी बात ठीक ही थी। काच टूट ही गया था। टुकड़े—टुकड़े हो गया था। पत्थर का यह गरूर भी ठीक ही था कि 'मैंने कहा है कि मेरे रास्ते में जो आयेगा, वह टूट जायेगा।
फिर पत्थर भीतर गिरा। वहा ईरानी कालीन बिछा हुआ था,उसके ऊपर गिरा। उस पत्थर ने मन में कहा, ' बहुत थक गया। एक शत्रु का भी सफाया किया, अब थोड़ी देर विश्राम कर लूं!'उसने विश्राम भी किया। लेकिन उस महल के नौकर को खबर पड़ी और काच के फूटने की आवाज पहुंची। वह भागा हुआ आया। उसने पत्थर को उठाकर वापस खिड़की से नीचे की तरफ फेंका। जब वह पत्थर वापस लौटने लगा, तब उसने कहा, 'मित्रों की मुझे बहुत याद आती है, अब मुझे वापस चलना चाहिए। ' वह नीचे गया और उस ढेरी के ऊपर वापस गिरा—अपने पत्थरों की ढेरी पर। उसने पत्थरों से कहा, 'मित्रो! बड़ी अदभुत यात्रा रही, बड़ी अच्छी यात्रा रही।
तुम खुद खयाल करोगे, कितनी बातें हम झूठी ओढ़े रखते हैं,कितनी बातें! हम जैसा होते हैं, वैसा हम कभी बताते नहीं। हम जैसे नहीं होते हैं, वैसा हम बताने की कोशिश करते हैं। हम जितने सुंदर नहीं हैं, उतने सुंदर दिखने की कोशिश करते हैं। हम जितने सच्चे नहीं हैं, उतने सच्चे दिखने की कोशिश करते हैं। हम जितने ईमानदार नहीं हैं, उतने ईमानदार दिखने की कोशिश करते हैं। हम जितने प्रेमपूर्ण नहीं हैं, उतने प्रेमपूर्ण दिखने की कोशिश करते हैं।
तब क्या होगा? तब इस कोशिश में, झूठ धीरे—धीरे हमारे चारों तरफ लिपटता चला जायेगा और हम जो नहीं हैं, वही हमें ज्ञात होने लगेगा कि हम हैं। निरंतर के प्रयास से, झूठ को ओढ़ने से ऐसा लगने लगेगा कि हम हैं। और तब भांति हो जायेगी। और तब भीतर पहुंचना कठिन हो जायेगा। अगर छोटी उस से ही यह बोध रहे कि मैं जो हूं उससे भिन्न न मुझे दिखायी पड़ना चाहिए, न मुझे कोशिश करनी चाहिए; जो भी सीधा—सच्चा मेरा व्यक्तित्व है,वही जगत जाने, वही दुनिया जाने, वही उचित है। और मैं तो कम से कम जानूं ही कि मैं कौन हूं। और अगर धीरे—धीरे इसका साहस बढ़ता चला जाए, तो झूठे व्यक्तित्वों का, फाल्स पर्सनालिटीज का तुम्हारे ऊपर प्रभाव नहीं होगा। तुम्हारा कोई व्यक्तित्व झूठा खड़ा नहीं होगा। धीरे—धीरे तुम्हारे जीवन में सरलता घनी होती जायेगी। और जैसे—जैसे उस बढ़ेगी, वैसे—वैसे सरलता बढ़ेगी। और एक क्षण आयेगा जीवन में, जब तुम्हारा हृदय इतना निर्मल होगा, इतना सरल और सीधा होगा, उसमें कोई कठोरता, उसमें कोई कृत्रिमता, उसमें कोई झूठ न होने से वह इतना निर्दोष होगा, जैसे पानी का झरना होता है, जिसमें कोई कचरा नहीं है, जिसमें कोई धूलि नहीं है, जिसमें कोई गंदगी नहीं है, जिसमें कोई मिट्टी नहीं है।
जैसे झरने के, निर्दोष झरने के नीचे के कंकड़—पत्थर तक दिखायी पड़ते हैं, नीचे की रेत भी दिखायी पड़ती है, ठीक वैसे ही जब मनुष्य इतना झरने की भांति सरल होता है, सीधा होता है, स्पष्ट होता है, साफ होता है, तो उस मन के भीतर जो आत्मा छिपी है, उसकी अनुभूति शुरू होती है। और आत्मा की अनुभूति हो, तो परमात्मा की खबर  मिलनी शुरू हो जाती है।
चल हंसा उस देश - प्रवचन - 02

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