न तो धन बुरा है, न पद।


भगवान! धन और पद के संबंध में आपके क्या विचार हैं?

न तो धन बुरा है, न पद। ध्यान हो तो सब सुंदर है;ध्यान न हो तो कुछ भी सुंदर नहीं है। ध्यान हो तो धन भी सृजनात्मक है। ध्यानी के पास धन हो तो जगत का हित ही होगा, अकल्याण नहीं, कल्याण ही होगा, मंगल ही होगा। क्योंकि धन ऊर्जा है। धन शक्ति है। धन बहुत कुछ कर सकता है। मैं धन—विरोधी नहीं हूं। मैं उन संत—महात्माओं की कतार का हिस्सा नहीं हूं जो तुमको समझाते रहे कि बचो धन से! भागो धन से! वे बातें कायरता की बातें हैं।

मैं कहता हूं: जीओ धन में, लेकिन ध्यान का विस्मरण न हो। ध्यान भीतर रहे, धन बाहर, फिर कोई चिंता नहीं है। फिर तुम कमलवत हो। फिर पानी में रहोगे और पानी तुम्हें छुएगा नहीं।

मैं कोई पद का भी दुश्मन नहीं हूं। आखिर दुनिया चलनी है तो लोगों को कहीं न कहीं तो होना होगा। कहीं न कहीं तो होना ही होगा।

प्रत्येक व्यक्ति को कहीं न कहीं तो होना ही पड़ेगा। इतना बड़ा संसार है, इसका विस्तार, इसका काम, इसकी व्यवस्था...किसी को कहीं न कहीं तो होना ही पड़ेगा। बस इतना ही खयाल रहे, पद से तादात्म्य न हो। तुम चाहे राष्ट्रपति हो जाओ तो भी राष्ट्रपति मत बन जाना। जानना—एक काम है, जो पूरा किया। जब राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठो तो राष्ट्रपति का काम कर देना और जैसे ही कुर्सी से नीचे उतरो और घर आओ, भूल—भाल जाना सब। दुकान पर दुकानदार हो जाना,घर आकर सब भूल—भाल जाना। लोग भूलते ही नहीं।

मैं कलकत्ता में एक घर में मेहमान होता था। मित्र थे मेरे, हाईकोर्ट के जज थे। उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि और किसी से मैं कह भी नहीं सकती, लेकिन आपसे कहूंगी और आप ही इन्हें समझाइए। हम परेशान हो गए हैं। ये घर से जाते हैं तो घर में हलकापन आ जाता है। बच्चे हंसने लगते हैं,खेलने लगते हैं, मैं भी प्रसन्न हो जाती हूं। और जैसे ही इनकी कार आकर पोर्च में रुकती है कि एकदम सन्नाटा फैल जाता है;बच्चे एक—दूसरे को खबर कर देते हैं कि डैडी आ गए। मैं भी घबड़ा जाती हूं। एकदम घर में उदासी छा जाती है, मातम छा जाता है।

मैंने कहा, मैं समझा नहीं, बात क्या है?

उसने कहा, बात यह है कि ये चौबीस घंटे न्यायाधीश बने बैठे रहते हैं। ये मेरे साथ बिस्तर पर भी रात जब सोते हैं तो न्यायाधीश की तरह। मेरे पति नहीं हैं ये, ये न्यायाधीश हैं। और इनकी हर बात की आज्ञा वैसे ही मानी जानी चाहिए, जैसे कि अदालत में ये खड़े हों। इनके सामने हर—एक मुजरिम है। बच्चे ऐसे खड़े होते हैं डरे हुए कि कोई अपराधी खड़े हों, कि चोर—बदमाश खड़े हों। इन्होंने ऐसा रोब बांध रखा है घर में,इससे हम सब परेशान हैं और ये भी सुखी नहीं, क्योंकि इतने तनाव में रहते हैं।

यह ढंग न हुआ पद पर होने का। यह पागलपन हुआ।

एक नेताजी पागलखाने में भाषण देने गए। भाषण के बाद पागलखाने के इंचार्ज ने बतलाया कि आज आपके भाषण के बाद पागल जितने खुश नजर आ रहे हैं, इतना प्रसन्न तो मैंने उन्हें अपनी पूरी जिंदगी में नहीं देखा। पच्चीस साल मुझे नौकरी करते हो गए।

नेताजी यह सुन कर मुस्कुराए, बोले, भाषण ही आज मैंने ऐसा दिया था कि अच्छे—अच्छे तक बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकते; फिर ये तो बेचारे पागल हैं।

ऐ भाई, जरा यहां आओ—एक पागल को बुला कर राजनीतिज्ञ ने पूछा—तुम लोग आज इतने खुश क्यों नजर आ रहे हो?

पागल ने कहा, खुश क्यों न हों नेताजी, हमारा महासौभाग्य कि आप यहां पधारे। यह हमारा इंचार्ज तो एकदम पागल है, जब कि आप बिलकुल हमारे जैसे लगते हैं।

पद तुम्हें पागल न बनाए। पद तुम्हें विक्षिप्त न करे। पद का उपयोग हो। तुम पद के साथ तादात्म्य न कर लो। आखिर कुछ लोगों को तो काम करना ही पड़ेगा, किसी को कलेक्टर होना पड़ेगा, किसी को कमिश्नर होना पड़ेगा, किसी को गवर्नर होना पड़ेगा, किसी को स्टेशन मास्टर, किसी को हेडमास्टर, किसी को प्रिंसिपल, किसी को वाइस चांसलर...

ये काम तो सब चलते रहेंगे। लेकिन ध्यानी इन कामों से तादात्म्य नहीं करता। इन कामों के कारण अकड़ नहीं जाता। ध्यानी जानता है कि जूता बनाने वाला चमार उतना ही उपयोगी काम कर रहा है जितना राष्ट्रपति। इसलिए अपने को कुछ श्रेष्ठ नहीं मान लेता, क्योंकि जूता बनाने वाला उतना अनिवार्य है जितना कोई और। इसलिए कोई हायरेरकी, कोई वर्ण—व्यवस्था पैदा नहीं होती कि मैं ऊपर, तुम नीचे; कोई सीढ़ियां नहीं बनतीं। सारे लोग, समाज के लिए जो जरूरी है,उस काम में संलग्न हैं। जिससे जो बन रहा है, जिसमें जिसको आनंद आ रहा है, वह कर रहा है। जिस दिन पद तुम पर हावी न हो जाए उस दिन पद में कोई बुराई नहीं।

और धन तुम्हारे जीवन का सर्वस्व न हो जाए। तुम धन को ही इकट्ठा करने में न लगे रहो। धन साधन है, साध्य न बन जाए। धन के लिए तुम अपने जीवन के और मूल्य सब गंवा न बैठो। तो धन में कोई बुराई नहीं है। मैं धन का निंदक नहीं हूं। मैं तो चाहूंगा कि दुनिया में धन खूब बढ़े, खूब बढ़े,इतना बढ़े कि देवता तरसें पृथ्वी पर जन्म लेने को!

लेकिन धन सब कुछ नहीं है। कुछ और भी बड़े धन हैं—प्रेम का, सत्य का, ईमानदारी का, सरलता का, निर्दोषता का, निर—अहंकारिता का। कुछ और भी धन हैं—धन से भी बड़े धन हैं! कोहिनूर फीके पड़ जाएं, ऐसे भी हीरे हैं—हीरे वे भीतर के हैं! सब कुछ धन न हो जाए।

मैंने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा, नसरुद्दीन,सुना कि तुमने नई फर्म बनाई! कितने साझीदार हैं?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अब आपसे क्या छिपाना! चार तो अपने ही परिवार के लोग हैं और एक पुराना मित्र। इस तरह पांच पार्टनर हैं।

मैंने पूछा, फर्म का नाम क्या रखा है?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मेसर्स मुल्ला एंड मुल्ला एंड मुल्ला एंड मुल्ला एंड अब्दुल्ला कंपनी।

मैंने कहा, नाम तो बड़ा अच्छा है, बड़ा सुंदर, मगर यह अब्दुल्ला कहां से बीच में आ टपका!

टपकाना ही पड़ा—दुखी स्वर में मुल्ला नसरुद्दीन बोला—पैसा तो सब उसी बेवकूफ का लगा है।

यहां मित्रता सब पैसे की है, संबंध सब पैसे के हैं। धन का यहां एक ही अर्थ है—लूटो जितना लूट सको, जिससे जितना लूट सको। तो फिर धन रोग है।

कहे होत अधीर--

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