अगर लॉटरी लग जाए तो आप क्या करेंगे। ओशो


टालस्टाय की प्रसिद्ध कहानी है :
एक आदमी, एक दरजी, हर महीने एक रुपया की लाटरी की टिकीट खरीदता था। ऐसा वह बीस साल से करता था। न कभी उसको लाटरी मिली, न उसने अब सोचना ही जारी रखा कि था कि कभी मिलेगी, मगर पुरानी आदत हो गई थी तो एक महिने में एक रूपए की खरीद लेता था। एक रूपए में बिगड़ता भी कुछ न था। मगर बीसवें साल में अनहोना घटा ! द्वार पर आकर एक रॉल्सरॉयस कार खड़ी हुई, इसमें बड़े - बड़े थैले नोटों से भरे हुए लोग उतरे और उन्होंने कहा कि भाई दरजी, अब क्या बैठे कर रहे हो, अब छोड़ो - छाडो़ सीना - पिरोना !... वह अपनी बटने टांक रहा था, शाम का वक्त।... फेंकोे -_फांको यह सब ! ये मिल गए तुमको दस लाख रूपए। लाटरी में जीत गए हो तुम। दरजी ने आव देखा न ताव... दस लाख रूपए मिल जाएं तो अब क्या करना ! उसने दुकान में ताला मारा और चाबी कुएं में फेंक दी ! कि अब करना ही क्या है ! 

सालभर में दस लाख रूपए हवा हो गए. चीजें जैसी आती हैं वैसे ही जाती हैं, यह भी खयाल रखना। अब दस लाख रूपए आए ऐसे ही उड़ते हूए, तो ऐसा ही चले गए। क्योंकि सालभर वह वह जिया ऐसे जैसे कोई शहंशाह जीए. खरीदी बड़ी - बड़ी गाड़ियां, बड़े मकान, सुंदर से सुंदर स्त्रीयां, बड़े -बड़े होटलों में रहा, सारी दुनिया का मार आया - जो था भोगने योग्य, भोग लिया। और जो भोग से होना था, वह हुआ. सालभर बाद दस लाख रूपए पर पानी फिर गया, वह तो अलग, सालभर में स्वास्थ्य पर भी पानी फिर गया. आंखे धुंधली हो गई, चष्मा चढ़ गया, चलने में भी डंडा लेकर चलता तो टेक -टेक कर चल पाता. क्योंकि भोग कुछ सस्ता तो पड़ता नहीं। टूट गया बिल्कुल. शराब और वेश्याएं और रात का जागना, और होटलों का भोजन ! सीधा सादा आदमी था, जिंदगी में ये चीजें कभी खायी भी न थी, एकदम से खाई तो उसका दुष्परिणाम भी हुआ. सालभर बाद दरवाजे पर आकर खड़ा हुआ तब याद आया कि चाबी तो कुएं में फेंक दी ! सो कुएं में उतरा. ठंड को दिन, रूस काम मौसम, पानी बिलकुल बरफ हो रहा है,उसमें डुबकी मारी, बामुश्किल चाबी खोज पाया। खींच - खींच कर लोगों ने बाहर निकाला.
ताला खोलकर फिर दूसरे दिन से दुकान शुरू की. लेकिन सालभर मैं ऐसा लगा जैसे बीस साल गुजर गए हों ! जैसे बीस साल कम हो गए उम्र के, इतना कमजोर हो गया. मगर पुरानी आदतें नहीं जाती. फिर वह अगला महिना आया, एक तारीख, एक रूपए सी टिकट उसने खरीद ली.
हालांकि भगवान से रोज प्रार्थना करता कि अब नहीं. अब मत दिलवाना लाटरी ! अब बहुत हो गया ! देख लिया जो देखना था, और बरबादी भी देख ली ! अब नहीं ! इधर रोज प्रार्थना भी करता... आदमी का ऐसा अद्भुत द्वंद्व से भरा हुआ मन है, तुम ज़रा गौर करोगे तो तो तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही मन पाओगे. इधर कहता रोज भगवान से कि नहीं, अब दिलवा मत देना ! एक दफा बहुत है, जो दिखा दिया नरक, वह पर्याप्त है ! मगर टिकट भी खरीदता जाता.
और सालभर बाद फिर आकर वही कार आकर रुकी. उसने छाती पीट ली, उसने कहा : मारे गए ! अब फिर फंसे ! जानता है कि नहीं फंसना है, मगर फिर निकल कर द्वार को बाहर आ गया, फिर थैलिया उतरीं, फिर रुपए, और फिर उसने ताला मारा और कहता जा रहा है अपने दिल में कि प्रभु, यह क्या करवा रहे हो ? यह मत दिखलाओ, यह मैं क्या कर रहा हूं ! और ताला भी मार दिया और कुएं मैं चाबी भी फेंकने लगा, तब फिर कहा कि हे प्रभु, क्यों ? ! क्या फिर ठंडे पानी में उतरवाओगे ? और चाबी फेंक दी ! मगर फिर उसे ठंडे पानी में उतरने ही नौबत नहीं आयी, क्योकि उस साल वह मर गया.
ओशो,
राम द्वारा जो मरे

Comments

Popular posts from this blog

हीरे की परख जौहरी ही जानता है

उर्वशिया मन के भीतर का जाल

परमात्मा हमें चारों तरफ से घेरे हुए है!