तुम मन नहीं हो बल्कि साक्षी हो।
तुम मन नहीं हो बल्कि साक्षी हो।
तीसरा शरीर दूसरे से अधिक बड़ा है, दूसरे से अधिक सूक्ष्म, दूसरे से अधिक उच्चतर।
जानवरों के पास दूसरा शरीर होता है लेकिन तीसरा शरीर नहीं होता है। जानवर जीवन से भरपूर होते हैं। जरा शेर को चलता देखो। कितना सुंदर, कितना प्रसाद, कितनी गरिमा। पुरुष हमेशा से ईर्ष्या करता रहा है। जरा हिरण को दौड़ते देखो। कितना हल्का-फुल्का, कितनी ऊर्जा, कितनी ऊर्जा की महान घटना! पुरुष हमेशा से ईर्ष्या करता रहा है। लेकिन पुरुष; ऊर्जा का उर्ध्वगमन होता है।
तीसरा शरीर, मन्मय कोष, मन शरीर। यह विशालतर है, दूसरे से अधिक विस्तीर्ण है। और यदि तुम विकसित नहीं होते हो, तुम बस मनुष्य होने की संभावना बने रह जाते हो लेकिन असल में मनुष्य नहीं बनते। यह मन है जो तुम्हें मनुष्य बनाता है। लेकिन, थोड़ा या अधिक, तुम्हारे पास यह नहीं होता है। इसकी जगह तुम्हारे पास बस जड़ यांत्रिक होती है। तुम नकल में जीते हो: तब तुम्हारे पास मन नहीं होता है।
जब तुम स्वयं अपने ढंग से जीना शुरू कर देते हो, सहज, जब तुम अपने जीवन की समस्याओं का निदान स्वयं हल करने लगते हो, जब तुम उत्तरदायी बनते हो, तुम मनमय शरीर में विकसित होने लगते हो। तब मन शरीर विकसित होता है।
अधिक से अधिक जीवंत होओ, प्रामाणिक होओ, उत्साहपूर्ण होओ। यदि वहां पथभ्रष्ट हो जाने की संभावना हो तब भी, पथभ्रष्ट हो जाओ, क्योंकि यदि तुम गलती करने से इतने भयभीत होते हो तो विकसित होने की कोई संभावना नहीं है। गलतियां ठीक हैं। गलतियां की जानी चाहिए। कभी भी एक ही गलती को दोबारा मत करो, लेकिन गलती करने से कभी भी मत डरो। जो लोग गलती करने से डरते हैं वे कभी भी विकसित नहीं हो पाते। वे अपनी जगह पर बैठे रह जाते हैं, हिलने तक डरते हैं। वे जिंदा नहीं हैं।
मन विकसित होता है जब तुम स्थितियों को स्वयं देखते हो, उनका स्वयं सामना करते हो। उनका हल निकालने के लिए स्वयं की ऊर्जा लाते हो। लोगों से सलाह मत मांगते फिरो। अपने जीवन लगाम अपने हाथों में लो; यही मेरा मतलब है जब मैं कहता हूं कि अपनी चीजें स्वयं करो। तुम तकलीफ में होओगे, दूसरा का अनुसरण करना आसान होता है। समाज का अनुसरण करना, बने बनाए ढर्रे का अनुसरण करना, परंपराओं का, शास्त्रों का अनुसरण करना सुविधाजनक होता है। यह बहुत आसान है क्योंकि सभी उनका अनुसरण कर रहे हैं; तुम्हें बस भीड़ का मृत हिस्सा भर होना है, तुम्हें बस भीड़ के साथ चलना है जहां कहीं वह जाए। इसमें तुम्हारी जरा भी जिम्मेदारी नहीं होती है।
लेकिन तुम्हारा मनस शरीर, तुम्हारा मनमय कोष, बहुत कष्ट में रहेगा, वह जरा भी विकसित नहीं होगा। तुम्हारे पास अपना स्वयं का मन नहीं होगा, और तुम कुछ बहुत ही सुंदर से चूक जाओगें और कुछ जो उच्चतर विकास के लिए सूत की तरह कार्य करता है उससे चूक जाओगे।
इसलिए हमेशा याद रखो, जो कुछ भी मैं तुम्हें कहता हूं, तुम उसे दो तरह से ले सकते हो। तुम उसे मेरे अधिकार से ले सकते हो, ओशो ऐसा कहते हैं, यह निश्चित ही सत्य होगा। तब तुम कष्ट देखोगे, तब तुम विकसित नहीं होओगे। जो कुछ भी मैं कहता हूं, उसे सुनो, उसे समझने की कोशिश करो, अपने जीवन में उसको उतारो, देखो वह कैसे कार्य करता है, और तब तुम्हारी अपनी चेतना में यह आता है। हो सकता है वह वही हो, वह ना भी हो। वे ठीक वैसे ही नहीं हो सकते क्योंकि तुम्हारा अलग व्यक्तित्व है, अद्वितीय चेतना। जो कुछ भी मैं कह रहा हूं वह मेरा अपना है। वह निश्चित ही मेरे भीतर गहरे जमा होगा। हो सकता है कि तुम ठीक वैसे ही निष्कर्ष पर आओ, लेकिन वे ठीक वैसे ही नहीं हो सकते। इसलिए मेरा निष्कर्ष तुम्हारा निष्कर्ष नहीं होना चाहिए।तुम्हें मुझे समझने का प्रयास करना चाहिए, तुम्हें सीखने का प्रयास करना चाहिए, लेकिन तुम्हें मेरे से जानकारी इकट्ठी नहीं करनी चाहिए, तुम्हें मेरे से निष्कर्ष इकट्ठे नहीं करने चाहिए। तब तुम्हारा मन शरीर विकसित होगा।
एक बार तुम मन शरीर से पार हो जाते हो, तब पहली बार तुम जानते हो कि तुम मन नहीं हो बल्कि साक्षी हो। मन से नीचे तुम्हारा उससे तादात्म्य बना रह जाता है। एक बार तुम जानते हो कि विचार, मानसिक कल्पनाएं और भाव बस वस्तुए हैं, तुम्हारी चेतना में तैरते बादल हैं; तुम उनसे तत्काल विभक्त हो जाते हो।
तुम शरीर के पार हो जाते हो, तुम अब और अधिक शरीर में सीमित नहीं रहे, तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो, मोटा या सूक्ष्म, तुम जानते हो कि तुम अनंत हो, बिना सीमाओं के। महाविदेह का अर्थ होता है वह जो यह जानता है कि उसकी कोई सीमा नहीं है। सभी सीमाएं रुकावट है, कैद खाने हैं; और वह उनको तोड़ सकता है, उन्हें गिरा सकता है और वह अनंत बन सकता है।
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