परमात्मा हमें चारों तरफ से घेरे हुए है!

मैंने सुना है,
एक मछली बचपन से ही
सुनती रही थी सागर की,
महासागर की बातें।

शास्त्रों में भी मछलियों के
महासागर की बातें लिखी हैं।
बड़े ज्ञानी थे जो मछलियों में,
वे भी महासागर की बातें करते थे।
वह मछली बड़ी होने लगी,
बड़ी चिंता और विचार में पड़ने
लगी कि महासागर है कहां?

अब जब मछली सागर में ही पैदा हुई हो
तो सागर का पता नहीं चल सकता।
सागर में ही बड़ी हुई तो सागर
का पता नहीं चल सकता।
वह पूछने लगी कि यह महासागर कहां है?

लोगों ने कहा,
हमने सुनी हैं ज्ञानियों से बातें, सुनी है वार्ता,
देखा तो किसी ने भी नहीं।
कुछ धन्यभागी मछलियां,

कोई बुद्ध—महावीर,
कोई कृष्ण—राम जान लेते होंगे;
बाकी साधारण मछलियां,
हम तो सिर्फ सुन कर मानते हैं
कि है महासागर कहीं।

वह बड़ी चिंता में रहने लगी।
उसका जीवन बड़ा विक्षुब्ध हो गया।
वह बड़ी विचारशील मछली थी।
वह भूखी—प्यासी भी पड़ी रहती
और सोचती रहती कि कैसे महासागर पहुंचे,

वह अद्वितीय घटना कैसे घटेगी?
महासागर का लोभ उसके मन में समाने लगा।
वह सूखने लगी, वह दुर्बल होने लगी।

फिर कोई एक अतिथि मछली
पड़ोस की नदी से आई थी।
उसने उसकी यह हालत देखी।
उसने कहा, पागल! जिसे तू खोजती है,

वह चारों तरफ मौजूद है,
हम उसी के भीतर हैं।
न तो भूखे मरने की जरूरत है,
न ध्यान करने की जरूरत है,
न जप करने की जरूरत है—महासागर है ही।
महासागर के बिना हम हो ही नहीं सकते।

जैसा उस मछली को बोध दिया गया,
अष्टावक्र जैसे सदगुरु हमें भी यही कह
रहे हैं कि हम मोक्ष में हैं ही,

परमात्मा हमें चारों तरफ से घेरे हुए है!
उसी में हमारा जन्म है, उसी में जीवन है,
उसी में हमारा विसर्जन है।

लेकिन इतना निकट है परमात्मा,
इसलिए दिखाई नहीं पड़ता।
दूर होता तो हम देख लेते।
आंखें हमारी दूर को देखने में समर्थ हैं।

जो निकट है, वही चूक जाता है।
जो बहुत पास है, वह भूल जाता है।
और परमात्मा से ज्यादा निकट कोई भी नहीं।

मछली के लिए तो उपाय भी है
कि कोई उसे उठाकर रेत के किनारे
पर डाल दे तो तड़प ले और पता
चल जाए उसे कि सागर का
छूट जाना कैसा होता है।

हमारे लिए तो वह भी उपाय नहीं है,
परमात्मा के बाहर हम जा ही नहीं सकते।

अष्टावक्र महागीता, प्रवचन -१४, ओशो

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